सरवन सिंह… ये उस शख्स का नाम है, जिन्हें मजबूरी में 20 साल तक ऑटो चलाना पड़ा। खेतों में काम करना पड़ा। आर्थिक तंगी से जूझते रहे लेकिन इन्हें अपना मेडल बेचना स्वीकार नहीं था। सरवन सिंह का जीवन ऐसा रहा जिसे देख कोई भी ये तय नहीं कर सकता कि उनकी किस्मत अच्छी रही या बुरी। अचानक से उन्हें अपनी ज़िंदगी को बदलने का एक मौका भी मिला, वो सफल भी हुए लेकिन ये नहीं बढ़ सके।
#ForgottenHeroes | The year was 1954. The setting, the Asian Games. 14.7 seconds is what it took Sarwan Singh to complete his 110 m hurdle race. He had won a gold for the country.
16 years later, after retiring from the Army, Sarwan was forced to drive a taxi in Ambala. 😢 1/2 pic.twitter.com/RszMW31OaY
— Suresh Parmar® (@iamSureshParmar) September 25, 2021
दरअसल, सरवन सिंह सेना में थे और वहां वो लगातार दौड़ते थे। वह भारतीय टीम के कैंप में भी शामिल होते रहे लेकिन उन्हें इंटरनेशनल लेवल पर खेलने का मौका नहीं मिल रहा था। पान सिंह तोमर जैसा हीरा खोज निकालने वाले सरवन सिंह ने 14.7 सेकंड में 110 किमी की दौड़ पूरी कर ली थी।
लगभग छह साल पहले सरवन सिंह ने एक इंटरव्यू में अपनी स्थिति के बारे में बताते हुए कहा था कि गोल्ड मेडल जीतने के बावजूद उन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। एक गोल्ड मेडलिस्ट होकर उन्हें भीख मांगने से बेहतर टैक्सी चलाना लगा। सरवन सिंह ने ये भी बताया कि जब वह 70 साल के हुए तो उनसे टैक्सी चलाने का काम भी छिन गया। ऐसी स्थिति में उन्हें खेतों में काम करने भी जाना पड़ा।
सरवन ने गरीबी के हाथों मजबूर होकर अपने मेडल बेच दिए थे लेकिन इंटरव्यू में सरवन सिंह ने इस बात को झूठ बताया और कहा कि उनके मेडल अभी भी उनके पास हैं। उन्होंने मेडल नहीं बेचे हैं।
#ForgottenHeroes | At the 1954 Asian Games, Sarwan Singh took 14.7 seconds to complete his 110m hurdle race and win a gold for India.
16 years later, after retiring from the Army, Sarwan was forced to drive a taxi in Ambala. Eventually, he had to sell his medal to earn money. pic.twitter.com/wa3EYcsGPE
— The Bridge (@the_bridge_in) September 19, 2021
1954 के एशियाई खेलों में जब इन्होंने 110 मीटर बाधा दौड़ में स्वर्ण पदक जीता था, तो सबको ऐसा लगा कि उनकी किस्मत में महानतम एथलीट बनना लिखा है लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। देश के लिए स्वर्ण पदक जीतने वाले और देश को अपने जैसा एक धावक देने वाले सरवन को वो सब नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। 1970 के आस-पास जब वह सेना से रिटायर हुए तो उन्हें सरकार से मिलने वाली पेंशन का ही सहारा था लेकिन उन्हें वो भी नहीं मिली। गरीबी से जूझने की स्थिति में वह अपने परिवार से दूर रहकर लगभग 20 साल तक अंबाला में टैक्सी चलाते रहे।