सुंदरवन, बंगाल के रहने वाले डॉ. फारूक हुसैन ने गरीब लोगों का इलाज करने के लिए अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी थी और आज लोग प्यार से उन्हें ‘बिना पैसे का डॉक्टर’ कहते हैं। बेहद गरीब परिवार में पैदा हुए डॉ. फारूक हुसैन आज एक सफल डॉक्टर हैं और कई पुरस्कार जीत चुके हैं। लेकिन वह गरीबी में बीता बचपन नहीं भूले हैं और न ही खुद से किए बचपन के वादे को भूले हैं।
इस काम के लिए उनका नाम 2021 में इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भी दर्ज हुआ। इसके साथ ही डॉ. फारूक को कई बार राज्य स्तर पर सम्मानित भी किया जा चुका है। यहां के लोग आज उन्हें किसी मसीहा से कम नहीं मानते और डॉ. फारूक इसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं।
सालों पहले अपने आसपास की तकलीफों को देखते हुए उन्होंने फैसला किया था कि वह बड़े होकर जरूरतमंदों के लिए काम करना चाहते हैं। इसलिए आज वे पिछले 10 वर्षों से सुंदरबन क्षेत्र में एक अस्पताल चला रहे हैं, जिसमें गरीबों को हर तरह की स्वास्थ्य सुविधाएं मुफ्त मुहैया कराई जाती हैं। डॉ. फारूक ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव से ली। बाद में उन्होंने कोलकाता मिशन स्कूल में दाखिला लिया। मिशन स्कूल में पढ़ाई के दौरान उन्होंने डॉक्टर बनने का सपना देखा और बाद में उन्हें एमबीबीएस की पढ़ाई का मौका मिला। बांकुड़ा मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने काम करना शुरू किया।
लेकिन काम करते हुए वे हमेशा अपने क्षेत्र के लोगों की समस्याओं के बारे में सोचते थे। इसलिए उन्होंने वापस जाकर उन जरूरतमंद लोगों के लिए काम करने की सोची। साल 2014 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अपने गांव के कुछ युवकों की मदद से एक एनजीओ शुरू किया। आज वे अपने एनजीओ ‘नबा-दिगंता’ के जरिए यहां के गांव से जुड़ी हर तरह की समस्याओं पर काम कर रहे हैं। उन्होंने यहां एक स्कूल भी बनवाया है। इसके साथ ही उन्होंने सुंदरबन क्षेत्र की महिलाओं और लड़कियों को सैनिटरी नैपकिन के उपयोग के बारे में जागरूक करने के लिए मुफ्त सैनिटरी नैपकिन देना शुरू किया।
डॉ. फारूक जैसे लोगों की वजह से ही इस दुनिया में आज भी इंसानियत ज़िन्दा है।