New Delhi: अरुण सिंह को भले ही बचपन से आंखों से कम दिखाई देता हो, लेकिन वह जन्म से नेत्रहीन नहीं थे। शुरुआत से ही ब्लैकबोर्ड और किताबों के छोटे अक्षर पढ़ने में मुश्किलें झेल रहे अरुण ने जैसे-तैसे इंटर तक की पढ़ाई पूरी की। लेकिन जब वह ग्रेजुएशन में पहुंचे तो उन्हें दिखाई देना बिल्कुल कम हो गया। लिखने-पढ़ने में ज्यादा समस्या होने पर उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी।
आंखों की खत्म हो रही रोशनी ने अरुण को अवसाद में धकेल दिया। उन्हें जीवन में चारों ओर अंधेरा दिखाई देने लगा। इसपर भी अरुण ने हिम्मत नहीं हारी। उन्हें पता चला कि कई ऐसी सुविधाएं हैं जिससे दृष्टिहीन पढ़-लिख सकते हैं। इसके बाद उन्होंने ब्रेल लिपि सीखी और दिल्ली यूनिवर्सिटी से अपना ग्रेजुएशन पूरा किया। ग्रेजुएशन के बाद अरुण ने रेलवे में भर्ती के लिए परीक्षा की तैयारी करनी शुरू की। जल्द की रेलवे में नौकरी पाने में सफल हो गये। आज उन्हें रेलवे में काम करते हुए पांच वर्षों से अधिक समय हो गया है।
छात्र जीवन में ही अपने आंखों की रोशनी खो देने वाले झारखंड, रांची के धुर्वा निवासी दृष्टिबाधित शख्स अरुण आज खुद दिव्यांगों की मदद कर रहे हैं। जब उनकी आंखों की रोशनी गई तब वह डिप्रेशन में चले गये लेकिन उन्होंने खुद को संभाला और अपनी कमजोरी को ही अपनी मजबूती बना लिया। उन्होंने ब्रेल लिपि सीखकर दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद अरुण ने रेलवे में नौकरी हासिल करने की। आज वह हजारों दिव्यांगों के जीवन में बदलाव ला रहे हैं।
अरुण ने लक्ष्य फॉर डिफरेंटली एबल्ड नामक संस्था की स्थापना की है, जो दिव्यांगों की मदद करने के लिए जानी जाती है। वह अपनी इस संस्था के जरिए दृष्टिबाधित लोगों को कंप्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल चलाना सीखा रहे हैं। अपनी इस मुहिम के द्वारा वह अब तक सैकड़ों दृष्टिबाधित लोगों को कंप्यूटर की ट्रेनिंग दे चुके हैं। इनमें से कई लोग आत्मनिर्भर हो गए हैं। इसके साथ ही उन्होंने एक ई-लाइब्रेरी की भी शुरुआत की है। जिसके माध्यम से दृष्टिबाधित आसानी से पढ़ाई कर रहे हैं। उनके इस सराहनीय कार्य को टाटा स्टील ने भी सराहा है और उन्हें सबल अवार्ड से सम्मानित किया है।